History of India in hindi: history of india for kids, history of india – wikipedia, brief history of india, history of india pdf, history of india for upsc, national archives of india, comes from the indus, indian subcontinent, the indus river, भारत का इतिहास कई हजार वर्ष पुराना माना जाता है। आज से लगभग 65,000 साल पहले आधुनिक मनुष्य, यानि होमो सेपियन्स, अफ्रीका(जहाँ वे पहले विकसित हुए) से भारतीय उपमहाद्वीप में पहुँचे थे। सबसे पुराना ज्ञात आधुनिक मानव आज से लगभग 30,000 वर्ष पहले दक्षिण एशिया में रहता है।
6500 ईसा पूर्व के बाद, खाद्य फसलों और जानवरों के वर्चस्व के लिए सबूत, स्थायी संरचनाओं का निर्माण और कृषि अधिशेष का भण्डारण मेहरगढ़ और अब बलूचिस्तान के अन्य स्थलों में दिखाई दिया। ये धीरे-धीरे सिंधु घाटी सभ्यता में विकसित हुए, दक्षिण एशिया में पहली शहरी संस्कृति, जो अब पाकिस्तान और पश्चिमी भारत में 2500-1900 ई.पू. के दौरान पनपी।
History of India: भारत का इतिहास
मेहरगढ़ पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है जहां नवपाषाण युग (7000 ईसा-पूर्व से 2500 ईसा-पूर्व) के बहुत से अवशेष मिले हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता, जिसका आरम्भ काल लगभग 3300 ईसापूर्व से माना जाता है, प्राचीन मिस्र और सुमेर सभ्यता के साथ विश्व की प्राचीनतम सभ्यता में से एक हैं। इस सभ्यता की लिपि अब तक सफलता पूर्वक पढ़ी नहीं जा सकी है। सिन्धु घाटी सभ्यता वर्तमान पाकिस्तान और उससे सटे भारतीय प्रदेशों में फैली थी। पुरातत्त्व प्रमाणों के आधार पर 1900 ईसापूर्व के आसपास इस सभ्यता का अकस्मात पतन हो गया।
लोकतंत्र
लोकतंत्र एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें जनता अपना शासक खुद चुनती है। लोकतंत्र शब्द को डेमोक्रेसी कहते है जिसकी उत्पत्ति ग्रीक मूल शब्द ‘डेमोस’ से हुई है। डेमोस का अर्थ है ‘जन साधारण’ और क्रेसी का अर्थ है ‘शासन’। क्या प्राचीनकाल में यह व्यवस्था हुआ करती थी और कैसी थी। इस लेख के माध्यम से जानेंगे की कैसे, लोकतंत्र का सिद्धांत ऋग्वेद की देन हैं।
जानिए लोकतंत्र की उत्पति कैसे हुयी
लोकतंत्र में लोक का अर्थ जनता और तंत्र का अर्थ व्यवस्था होता है। अत: लोकतंत्र का अर्थ हुआ जनता का राज्य। यह एक ऐसी जीवन पद्धति है जिसमें स्वतंत्रता, समता और बंधुता समाज-जीवन के मूल सिद्धांत होते हैं। अंग्रेजी में लोकतंत्र शब्द को डेमोक्रेसी (Democracy) कहते है जिसकी उत्पत्ति ग्रीक मूल शब्द ‘डेमोस’ से हुई है। डेमोस का अर्थ है ‘जन साधारण’ और क्रेसी का अर्थ है ‘शासन’। ऐतिहासिक दृष्टि से अवलोकन करें तो भारत में लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली का आरंभ पूर्व वैदिक काल से ही हो गया था। प्राचीनकाल से ही भारत में सुदृढ़ लोकतांत्रिक व्यवस्था विद्यमान थी। इसके साक्ष्य प्राचीन साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों से प्राप्त होते हैं।
indus valley civilization vedic: History of India advertisement
ऐसा कहना गलत नहीं होगा की लोकतंत्र का सिद्धांत वेदों की ही देन हैं. सभा और समिति का उल्लेख ऋग्वेद एवं अथर्ववेद दोनों में मिलता हैं. जिसमें राजा, मंत्री और विद्वानों से विचार विमर्श करने के बाद ही कोई फैसला लेता था. इनके माध्यम से यह पता चलता है कि उस समय राजनीती कितनी ठोस हुआ करती थी क्योंकि सभा एवं समिति के निर्णयों को लोग आपस में अच्छे द्रष्टिकोण से निपटाते थे. यहाँ तक की विभिन्न विचारधारा के लोग कई दलों में बट जाते थे और आपसी सलाह मशवरा करके निर्णय लेते थे.
कभी–कभी विचारों में मदभेद के कारण आपसी झगड़ा भी हो जाता था. अर्थात ऐसा कहना गलत नहीं होगा की वैदिक काल से ही द्विसदस्यीय संसद की शुरुआत मानी जा सकती है.
इंद्र का चयन भी वैदिक काल में इन्हीं समितियों के कारण ही होता था. उस समय इंद्र एक पद हुआ करता था जिसे राजाओं का रजा कहा जाता था. गणतंत्र शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्ववेद में 9 बार और ब्राह्माण ग्रंथों में अनेक बार किया गया है. वैदिक काल के पतन के बाद राजतंत्रों का उदय हुआ और वही लंबे समय तक शासक रहे. History of India
आधुनिक संसदीय लोकतंत्र के महत्वपूर्ण तथ्य
क्या आप जानते हैं कि आधुनिक संसदीय लोकतंत्र के कुछ महत्वपूर्ण तथ्य जैसे की बहुमत द्वारा निर्णय लेना पहले भी प्रचलित थे. उस समय भी बहुमत से हुआ निर्णय अलंघनीय माना जाता था. वैदिक काल के पश्चात छोटे गणराज्यों का वर्णन मिलता है जिसमें जनता एक साथ मिलकर शासन से सम्बंधित प्रश्नों पर विचार करती थी. गणराज्य को प्राचीनकाल में प्रजातांत्रिक प्रणाली के रूप में परिभाषित किया जाता था. आत्रेय ब्राह्मण, पाणिनि के अष्टाध्यायी, कौटिल्य के अर्थशास्त्र महाभारत, अशोक स्तम्भों के शिलालेखों समकालीन इतिहासकारों तथा बौद्ध एवं जैन विद्वानों द्वारा रचित ग्रन्थों में तथा मनुस्मृति में इसके पर्याप्त ऐतिहासिक साक्ष्य मिलते हैं.
महाभारत के शांति पर्व में `संसद´ नामक एक सभा का उल्लेख भी मिलता है क्योंकि इसमें आम जनता के लोग होते थे, इसे जन सदन भी कहा जाता था. अगर बौध काल की बात करें तो उस समय भी लोकतंत्र व्यवस्था थी. लिच्छवी, वैशाली, मल्लक, मदक, कम्बोज आदि जैसे गंणतंत्र संघ लोकतांत्रिक व्यवस्था के उदाहरण हैं. वैशाली के पहले राजा विशाल को चुनाव द्वारा ही चुना गया था.
कौटिल्य की अर्थशास्त्र में गणराज्य को दो तरह का बताया गया है पहला अयुध्य गणराज्य एक ऐसा गणराज्य जिसमें केवल राजा ही फैसले लेता था और दूसरा श्रेणी गणराज्य जिसमें हर कोई फैसले लेने में भाग ले सकता है. वहीं पाणिनी की अष्ठाध्यायी में जनपद शब्द का उल्लेख मिलता है. जिसमें जनता द्वारा प्रतिनिधि चुना जाता था और वही शासन व्यवस्था संभालता था. इस लेख से यह ज्ञात होता है कि प्राचीन काल से ही कई स्थानों पर गणतंत्रीय व्यवस्था थी. जिसके सूत्र कई आलेखों से मिलते हैं. अर्थात लोकतंत्र का सिद्धांत रिग्वेदा की ही देन है.
सम्राट अशोक और नौ अज्ञात पुरुष: History of India
भारतीय इतिहास में कुछ ही शासकों को उनकी महानता के लिए याद किया जाता है और सम्राट अशोक उनमें से एक हैं। वह मौर्य वंश के तीसरे शासक थे, जिन्होंने लगभग 36 वर्षों तक पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन किया था। यहां हम भारतीय इतिहास से जुड़े उन तथ्यों का विवरण दे रहे हैं, जिससे आपको पता चलेगा कि अशोक के नौ अज्ञात पुरुषों के पीछे का रहस्य क्या था।
भारतीय इतिहास में कुछ ही शासकों को उनकी महानता के लिए याद किया जाता है और सम्राट अशोक उनमें से एक हैं। वह मौर्य वंश के तीसरे शासक थे, जिन्होंने लगभग 36 वर्षों तक पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन किया था।
अपने शुरूआती दौर में, वह एक क्रूर और हिंसक सम्राट के रूप में जाने जाते थे, लेकिन कलिंग युद्ध के हुए नरसंहार ने सम्राट अशोक के अंतर आत्मा को हिला दिया था। हालांकि, कलिंग की लड़ाई बहुत ही क्रूर और घातक थी, लेकिन उसने सम्राट अशोक को एक क्रूर और तामसी शासक से एक अहिंसक और शांतिप्रिय सम्राट में बदल दिया। इस युद्ध के कारण नौ अज्ञात पुरूषों के समूह का गठन हुआ। अशोक ने बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का पालन किया और अपने जीवन में बहुत ही अच्छे काम किए. उनकी मृत्यु के बाद मौर्य वंश केवल पचास वर्षों तक ही चल पाया.
इसके अलावा भारत में बौद्ध धर्म का प्रभाव कम होना शुरू हो गया था, लेकिन अन्य दक्षिण एशियाई देशों में इसका उत्कर्ष शुरू हो गया था।
सम्राट अशोक की प्रमुख उपलब्धियां
- बौद्ध के अवशेषों को संग्रहीत करने के लिए दक्षिण एशिया और मध्य एशिया में 84,000 स्तूपों का निर्माण
- मौर्य सम्राट के सबसे प्रतिष्ठित अवशेषो में से एक “अशोक चक्र” और “सारनाथ का सिंहस्तंभ” है. भारतीय राष्ट्रीय ध्वज में “अशोक चक्र” को “धार्मिकता का चक्र” के रूप में और “सारनाथ के सिंहस्तंभ” को भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में अपनाया गया है।
- अशोक ने धमेक स्तूप, भरहुत स्तूप, सन्नति स्तूप, बुखारा स्तूप, बराबर की गुफाएं, महाबोधि मंदिर और सांची जैसे स्थानों पर “विहार” तथा नालंदा विश्वविद्यालय और तक्षशिला विश्वविद्यालय जैसे बौद्धिक केंद्रों का निर्माण करवाया था।
सम्राट अशोक और नौ अज्ञात पुरूषों के समूह
ऐसे अज्ञात पुरुषो का समूह था जिन्होंने दुनियादारी से खुद को अलग कर लिया था ताकि राजनीति या मुख्यधारा विज्ञान के साथ किसी भी तरह के व्यवहार से बच सके। वे सांसारिक रहस्यमय तथ्यो के संरक्षक और अभिभावक के रूप में काम करते थे। वे पूरे सभ्यताओं के उदय और पतन के पर्यवेक्षक थे, फिर भी वे कभी भी हस्तक्षेप नहीं करते थे या किसी प्रकार की सक्रियता नहीं दिखाते थे, लेकिन मानव जाति उत्थान के लिए हमेशा कार्यरत थे।
विज्ञान के नौ समर्पित अनुयायियों को चुना गया और प्रत्येक को मानव जाति के किसी एक विशिष्ट क्षेत्र से संबंधित ज्ञान के संकलन वाली एक किताब दी गई। इस समूह में हर समय नौ लोग होते थे। इन नौ अज्ञात व्यक्तियों को अमरता के रहस्यों को उजागर करने और अनंत काल के लिए अपनी स्थिति को गोपनीय बनाए रखने के लिए कहा गया था। प्रत्येक व्यक्ति को जो पुस्तक दिया गया था, उन्हें उनमें नई बातों को जोड़ना था एवं पहले से संकलित ज्ञान को संशोधित कर सही करना था।
नौ पुस्तकों एवं नौ अज्ञात पुरूषों के समूह का रहस्य
इन रहस्यमय पुस्तकों में कई विषयों का ज्ञान शामिल हैं, जिनमें से अधिकांश के बारे में आज भी हम नहीं जानते हैं। ‘नौ अज्ञात पुरुष’ कौन हैं? क्या यह एक मिथक है? क्या कोई ऐसे ऐतिहासिक आकड़े हैं जो इनकी विश्वसनीयता को सत्यापित करते हैं? क्या कभी सबसे शक्तिशाली ज्ञान का संग्रह एकत्र किया गया था? यदि हां, तो वे कौन हैं और अब कहां हैं एवं उनकी अंतिम योजना क्या है? क्या उनका व्यवहार उदार हैं या शत्रुतापूर्ण हैं? क्या हमें इन सवालों का जवाब कभी मिल पाएगा?
वास्तव में नौ अज्ञात पुरुषों की कहानी 2000 वर्षों से भी ज्यादा पुरानी है। इन नौ में से प्रत्येक पुस्तक के मूल तत्वों की अवधारणा आम तौर पर बदलती रही है। एक अंग्रेजी लेखक टैलबॉट मुंडे ने 1923 में “द नाइन अननॉन मैन” नामक एक पुस्तक को वितरित किया, जिसमें 9 पुस्तकों का सारांश था। इस सारांश को बड़े पैमाने पर स्वीकार किया गया है। History of India
हमारे व्हाट्सएप ग्रुप में शामिल होने के लिए यहाँ क्लिक करें- Click Here
‘जन गण मन’ भारत का राष्ट्रगान कब और क्यों बना: History of India
रविन्द्रनाथ टैगोर ने भारत का राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ बंगाली भाषा में लिखा था. 24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा द्वारा ‘जन गण मन’ के हिन्दी संस्करण को राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया। आइये जानते हैं कि सर्वप्रथम राष्ट्रगान कब गाया गया था और इसको गाने के पीछे क्या कारण था।
15 अगस्त 1947 को भारत को ब्रिटिश उपनिवेशवाद से स्वतंत्र घोषित किया गया था, और नियंत्रण की बागडोर देश के नेताओं को सौंप दी गई थी। भारत की स्वतंत्रता प्राप्त करना नियति के साथ एक प्रयास था, क्योंकि स्वतंत्रता के लिए संघर्ष एक लंबा था, जिसमें कई स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों को देखा गया, जिन्होंने अपनी जान की बाजी लगा दी।
भारत का राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ है। क्या आप जानते हैं कि राष्ट्रगान क्या होता है? ये एक ऐसा गाना है जो किसी भी देश के इतिहास और परंपरा को दर्शाता है। ये देश को एक अलग पहचान के साथ सभी देशवासियों को एकजुट भी करता है। हम आपको बता दें कि जब तक सरकार उस गाने को स्वीकार कर बतौर अधिनियम पारित नहीं करती, तब तक वह गाना राष्ट्रगान के रूप में पूरे देश में लागू नहीं किया जा सकता। 24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा द्वारा‘जन गण मन’ के हिन्दी संस्करण को राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया था।
‘जन गण मन’ राष्ट्रगान को रविन्द्रनाथ टैगोर ने बंगाली भाषा में लिखा था। राष्ट्रगान के गायन की अवधि 52 सेकेण्ड है, परन्तु कुछ अवसरों पर इसको संक्षिप्त में भी गाया जाता है, जिसमें केवल 20 सेकेण्ड ही लगते हैं क्योंकि उस समय राष्ट्रगान की पहली और अंतिम पंक्तियों को ही गाया जाता है।
गणतंत्र दिवस एवं स्वतंत्रा दिवस के अवसर पर देश के सभी स्कूल, कॉलेज, सरकारी कार्यालयों में एवं अब तो सिनेमाघरों में भी फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाया जाता है। आइये इस लेख के माध्यम से आप जानेंगे कि सर्वप्रथम राष्ट्रगान कब गाया गया था और इसको गाने के पीछे क्या कारण था।
‘जन गण मन’ कब गाया गया था: History of India
क्या आप जानते है कि सन 1911 तक भारत की राजधानी बंगाल हुआ करती थी। 1905 में जब बंगाल विभाजन हुआ तो आम जनता एवं आंदोलनकारी बंग-भंग आंदोलन का विरोध करने लगे, तब अंग्रेजो ने कलकत्ता के बदले दिल्ली को भारत की राजधानी बनाया। धीरे-धीरे भारतीयों के दिलों में स्वतंत्रता की भावना जागृत होने लगी थी और तभी कलकत्ता के एक कोने में एक गीत “जन गण मन अधिनायक जय हे” का जन्म हुआ जिसे तत्कालीन कवि रविंद्रनाथ टैगोर ने बंगाली में एक कविता के रूप में लिखा था।
इस गीत को पहली बार 27 दिसंबर, 1911 को कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वार्षिक सम्मेलन के दूसरे दिन गाया गया था। टैगोर की भतीजी, सरला देवी चौधरानी ने कुछ स्कूली छात्रों के साथ इस गीत को अपनी आवाज़ दी थी और कांग्रेस अध्यक्ष बिशन नारायण दर, भूपेन्द्र नाथ बोस, अम्बिका चरण मजूमदार जैसे अन्य नेताओं के सामने गाया था।
राष्ट्रगान बनाने के पीछे क्या कारण था?
जब 1911 में कलकत्ता से दिल्ली को राजधानी के रूप में स्थानांतरित किया गया तब दिल्ली दरबार का आयोजन हुआ था, जिसमें इंग्लैंड के राजा जॉर्ज पंचम को आमंत्रित किया गया था। ऐसा कहा जाता है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर को उनके स्वागत में एक गीत लिखने को कहा गया था। उस समय टैगोर परिवार के कई लोग ईस्ट इंडिया कंपनी में काम किया करते थे। इसलिए रवीन्द्रनाथ टैगोर से जब गीत लिखने को कहा तो उन्होंने बंगाली भाषा में ‘जन गण मन’ को एक कविता के रूप में लिखा था।
राष्ट्रगान के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
- आज हम राष्ट्रगान को जिस लय में गाते हैं, उसे आंध्र प्रदेश के एक छोटे-से जिले मदनपिल्लै में संगीतबद्ध किया गया था।
- मशहूर कवि जेम्स कज़िन की पत्नी मारग्रेट जो कि बेसेंट थियोसोफिकल कॉलेज की प्रधानाचार्य थीं, ने अंग्रेजी में इसका अनुवाद किया था।
- राष्ट्रगान का संस्कृतनिष्ठ बांग्ला से हिंदी में अनुवाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने करवाया था। कैप्टन आबिद अली ने इसका हिन्दी में अनुवाद किया था और कैप्टन राम सिंह ने इसे संगीतबद्ध किया था।
- क्या आप जानते है कि 1911 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने पांच पदों वाली एक कविता की रचना की थी और उसी कविता के पहले पद को राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया था।
- कानूनी तौर पर किसी भी व्यक्ति को राष्ट्रगान गाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।
- Prevention of Insults to National Honour Act, 1971 की धारा-3 के तहत राष्ट्रगान के नियमों का पालन नहीं करने पर और इसका अपमान करने पर कड़ी कार्रवाई की जाती है।
- ‘आमार सोनार बांग्ला’ जो कि बांग्लादेश का राष्ट्रगान है, रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ही लिखा था और दुनिया के पहले ऐसे कवी बने जिन्होंने दो देशों का राष्ट्रगान लिखा।
- ‘हेत विलहेलमस’ दुनिया का सबसे पुराना डच का राष्ट्रगान है, जिसे 1574 में लिखा गया था।
उपरोक्त लेख से ज्ञात होता है कि भारत का राष्ट्रगान रविन्द्रनाथ टैगोर द्वारा लिखा गया था और 1911 में इसे पहली बार कलकत्ता में कांग्रेस के वार्षिक सम्मेलन में गाया गया था। इसको बनाने के पीछे क्या कारण था और कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों के बारे में भी जानकारी प्राप्त होती हैं।
History of India: प्राचीन भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी
प्राचीन भारत के वैज्ञानिकों ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान दिया है। यहाँ हम प्राचीन भारत के वैज्ञानिकों द्वारा विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में दिए गए बहुमूल्य योगदान का सक्षिप्त विवरण दे रहे हैं जो UPSC, SSC, State Services, NDA, CDS और Railways जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों के लिए बहुत ही उपयोगी है।
भौतिकी: History of India
- प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों ने ब्रह्मांड के निर्माण के संबंध में अवधारणा व्यक्त की थी। उनके अनुसार ब्रह्मांड “पंचमहाभूतों” भूमि, जल, आग, हवा और आकाश से मिलकर बना है।
- वे लोग यूनानियों से पहले अणुओं और परमाणुओं के अस्तित्व के बारे में जानते थे।
- वैशेषिक दर्शन में परमाणु सिद्धांत का सविस्तार वर्णन किया गया है।
- ब्रह्मगुप्त ने न्यूटन के गुरुत्व के सिद्धांत की घोषणा के संबंध में पूर्वानुमान व्यक्त किया था। जिसमें कहा गया है कि “प्रकृति के नियम के कारण सभी वस्तुएं पृथ्वी पर गिरती है और पृथ्वी का यह स्वभाव है कि वह सभी वस्तुओं को आकर्षित करती है”।
गणित: History of India
- गणित के क्षेत्र में भारतीयों ने तीन महत्वपूर्ण योगदान दिया है- संकेतन प्रणाली, दशमलव प्रणाली और शून्य का उपयोग।
- भारतीय संकेतन प्रणाली अरबों द्वारा अपनाया गया था और अंकों को अंग्रेजी में “अरबी” कहा जाता है। ये अंक अशोक के शिलालेख में पाए गए हैं।
- भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट ने सर्वप्रथम दशमलव प्रणाली की खोज की थी।
- 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में रचित “सुल्वसूत्र” में रेखागणित के बारे में वर्णन किया गया है। आर्यभट्ट ने “सूर्य सिद्धांत” में त्रिभुज का क्षेत्रफल ज्ञात करने की विधि का वर्णन किया था जिसके आधार पर “त्रिकोणमिति” की उत्पत्ति हुई है।
खगोलशास्त्र: History of India
- ज्योतिष वेदांग (500 ई.पू.) खगोल विज्ञान का सबसे प्रारंभिक स्रोत है। इसमें 27 नक्षत्रों के बीच चन्द्रमा की स्थिति की गणना के लिए नियमों का उल्लेख किया गया है।
- आर्यभट्ट ने सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण के सटीक कारणों का पता लगाया था और इस बात की व्याख्या की थी कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। उन्होंने अपनी पुस्तक “आर्यभट्टिय” (499 ईस्वी) में इस बात का वर्णन किया है कि “पृथ्वी गोल है”, साथ ही उन्होंने यह भी बताया था कि “पाई” का मान 3.1416 होता है।
- वराहमिहिर ने 6ठी शताब्दी ईस्वी में अपनी पुस्तक “वृहत्संहिता” में इस बात का वर्णन किया था कि चन्द्रमा पृथ्वी के चारों ओर घूमता है और पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है।
रसायनशास्त्र: History of India
- प्राचीन भारत में सोना, चांदी, तांबा, लोहा, पीतल और अन्य धातुओं का बड़े पैमाने पर उत्पादन के साथ-साथ धातु विज्ञान के क्षेत्र में काफी विकास किया गया था।
- मर्यौत्तर काल में पश्चिमी देशों से “स्टील उत्पादों” का निर्यात किया जाता था।
- सुल्तानगंज से प्राप्त बुद्ध की तांबे की प्रतिमा और दिल्ली में महरौली का लौह स्तंभ धातु विज्ञान के बेहतरीन उदाहरण हैं।
औषधि: History of India
- अथर्ववेद के श्लोकों का संबंध आयुर्वेद से है।
- चरक द्वारा रचित “चरकसंहिता” (100 ईस्वी) में विभिन्न रोगों के उपचार का वर्णन किया गया है, साथ ही “आहार” के माध्यम से रोगों की रोकथाम और नियंत्रण के बारे में भी वर्णन किया गया है।
- सुश्रुत द्वारा रचित “सुश्रुत संहिता” में चेतनालोप (anaesthesia), शल्य चिकित्सा, और “नासिकासंधान” (rhinoplasty) के माध्यम से विभिन्न प्रकार के ऑपरेशन और मोतियाबिंद जैसी बीमारियों के इलाज के बारे में वर्णन किया गया है।
प्राचीन भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र से संबंधित विभिन्न विचारों के अलावा व्याकरण और भाषा विज्ञान के क्षेत्र में भी विकास हुआ था जिसने वैदिक प्रार्थना और मंत्रों के सस्वर पाठ एवं शुद्धतापूर्वक उच्चारण में मदद की थी। भाषा के विकास से संबंधित पुस्तकों में 400 ईसा पूर्व में पाणिनि द्वारा रचित “अष्टाध्यायी” और 2 शताब्दी ईसा पूर्व में पतंजलि द्वारा रचित “महाभाष्य” प्रमुख हैं। प्राचीन भारत के इन सभी पुस्तकों एवं खोजों का मुख्य उद्देश्य “धार्मिक प्रयोजन” था। History of India
हमारे व्हाट्सएप ग्रुप में शामिल होने के लिए यहाँ क्लिक करें- Click Here
History of India: भारतीय प्रायद्वीप में गुप्त के बाद के राजवंश, invasion of alexander the gupta
5वीं शताब्दी के अंत के दौरान गुप्त साम्राज्य का बिखराव शुरू हो गया था। शाही गुप्तों के समाप्त होने के साथ-साथ मगध और इसकी राजधानी पाटलिपुत्र ने भी अपना महत्व खो दिया था। इसलिए, गुप्त काल के बाद की अवधि प्राकृतिक लिहाज से बहुत अशांत थी। गुप्तों के पतन के बाद उत्तर भारत में पांच प्रमुख शक्तियां फैल गयी थी। ये शक्तियां थी: हूण, मौखरि, मैत्रक, पुष्यभूति, गौड।
गुप्त काल के बाद (750 ई. पू. तक) alexander the gupta dynasty
5वीं शताब्दी के अंत के दौरान गुप्त साम्राज्य का बिखराव शुरू हो गया था। शाही गुप्तों के समाप्त होने के साथ साथ मगध और इसकी राजधानी पाटलिपुत्र ने भी अपना महत्व खो दिया था। इसलिए, गुप्त काल के बाद की अवधि प्राकृतिक लिहाज से बहुत अशांत थी। गुप्तों के पतन के बाद उत्तर भारत में पांच प्रमुख शक्तियां फैल गयी थी। ये शक्तियां निम्नवत् थी:
हूण:
हूण मध्य एशिया की वह दुर्लभ प्रजाति थी जिसका आगमन भारत में हुआ था। कुमारगुप्त के शासनकाल के दौरान, हूणों ने पहली बार भारत पर आक्रमण किया था। हालांकि, कुमारगुप्त और स्कन्दगुप्त राजवंश के दौरान वे भारत में प्रवेश करने में सफल नहीं हो सके थे। हूणों ने तीस साल की एक बेहद ही कम अवधि के लिए भारत पर राज किया था। हूणों का वर्चस्व उत्तर भारत में स्थापित हुआ था। तोरामन उनका एक सर्वश्रेष्ठ शासक था जबकि मिहिरकुल सबसे शक्तिशाली और सुसंस्कृत शासक था।
मौखरि:
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कन्नौज के आसपास के क्षेत्र पर मौखरियों का कब्जा था। उन्होंने मगध के कुछ हिस्से पर भी विजय प्राप्त की थी। धीरे-धीरे उन्होंने बाद में गुप्तों को सत्ताविहीन कर दिया और उन्हें मालवा जाने के लिए मजबूर कर दिया।
मैत्रक:
शायद अधिकांश मैत्रक ईरानी मूल के थे और वल्लभी के रूप में राजधानी के साथ गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में शासन किया। भटरक के मार्गदर्शन में वल्लभी शिक्षा, संस्कृति और व्यापार तथा वाणिज्य का केंद्र बन गयी थी। इसने सबसे लंबे समय तक अरबों से रक्षा की थी।
पुष्यभूति:
थानेश्वर (दिल्ली का उत्तरी भाग) पुष्यभूति की राजधानी थी। प्रभाकर वर्धन इस वंश का सबसे विशिष्ट शासक था जिसने परम भट्टारक महाराजाधिराज की पदवी धारण की थी। उसका मौखरियों के साथ एक वैवाहिक गठबंधन था। वैवाहिक गठबंधन ने दोनों साम्राज्यों को मजबूत बनाया था। हर्षवर्धन इसी गोत्र से संबंध रखते थे।
गौड:
गौड़ों ने बंगाल के एक क्षेत्र पर शासन किया और बांकि चार साम्राज्य काफी कम प्रसिद्ध थे। शशांक इनका सबसे शक्तिशाली और महत्वाकांक्षी शासक था। उसने मौखरियों पर आक्रमण कर ग्रहवर्मन की हत्या कर दी थी तथा राज्यश्री को हिरासत में ले लिया था।
हर्षवर्धन का राजवंश: History of India
हर्षवर्धन (606-647 ईस्वी): हर्षवर्धन ने लगभग 1400 साल पहले शासन किया था।
कई ऐतिहासिक स्त्रोत जो हर्षवर्धन के शासनकाल का हिस्सा थे:-
ह्वेनसांग: ‘सी-यू-की’ की रचना की।
बाण भट्ट: हर्षचरित, कादम्बरी और पार्वतिपरिणय (संस्कृत में हर्षवर्धन की शक्ति/ जीवनी के अभ्युदय का एक विवरण)।
हर्ष के स्वयं के नाटक: राजनीति के विषय में रत्नावली, नागभट्ट और प्रियदर्शिका। हरिदत्त और जयसेन को भी हर्ष का संरक्षण प्राप्त था।
हर्ष की शक्ति में वृद्धि: अपने बड़े भाई राज्यवर्मन की मृत्यु के बाद 606 ईस्वी में हर्ष सिंहासन पर विराजमान हुआ। बंगाल के शासक के खिलाफ अपने भाई की मौत का बदला लेने और अपनी बहन को रिहा करवाने के उसने सेना का नेतृत्व किया। गौड़ों के खिलाफ वह अपने पहले मिशन में असफल रहा था, लेकिन जल्द ही उसने अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया था।
हर्ष को आम तौर पर भारत के अंतिम महान हिन्दू सम्राट के रूप में जाना जाता था। लेकिन वह कट्टर हिंदू शासक नहीं था। उसने कश्मीर, राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार और उड़ीसा को छोड़ उत्तर भारत में ही अपनी शक्ति को सीमित कर दिया था जहां उसका सीधा नियंत्रण था।
हर्षवर्धन का प्रशासन: History of India
- अधिकारी- प्रशासनिक क्षेत्र
- महासंधि ब्रिग्राहक- शांति और युद्ध के बारे में फैसला करने वाला अधिकारी
- महाबलाधि कृत- थल सेना का प्रमुख अधिकारी
- बलाधिकृत- कमान्डर
- आयुक्तक- सामान्य अधिकारी
- वृहदेश्वर- अश्व सेना का प्रमुख
- दूत राजस्थारुया- विदेश मंत्री
- कौतुक- हस्ती सेना का प्रमुख
- उपरिक महाराज- राज्य प्रमुख
वाकटक साम्राज्य: History of India
वाकटक साम्राज्य मध्य तीसरी शताब्दी ईस्वी के दौरान डेक्कन में स्थित था। राज्य, पश्चिम में अरब सागर से पूर्वी छत्तीसगढ़ के कुछ भागों के साथ-साथ उत्तर में मालवा और गुजरात के दक्षिणी किनारों से दक्षिण में तुंगभद्रा नदी तक विस्तारित हो गया था। वाकटक डेक्कन में सातवाहन के उत्तराधिकारी थे और उत्तरी भारत में गुप्तों के समकालीन भी थे।
राजवंश का संस्थापक विध्याक्ति (250 ई.पूं -270 ई.पू.) था जिसका नाम विंध्य देवी से लिया गया था जिसके नाम पर बाद में पहाड़ नामित हुआ था।
चालुक्य: History of India
चालुक्यों ने रायचूर दोआब पर शासन किया था जो कृष्णा और तुंगभद्रा की नदियों के बीच स्थित था। ऐहोल (मंदिरों का शहर) चालुक्यों की पहली राजधानी होने के साथ-साथ व्यापर का केंद्र थी जिसे बाद में इसके चारों ओर मंदिरों की संख्या ज्यादा होने से धार्मिक केंद्र के रूप में विकसित किया गया था। पुलकेसिन प्रथम के दौरान चालुक्यों की राजधानी बादामी स्थांतरित की गयी थी। बादामी को वातापी के रूप में भी जाना जाता था।
हमारे व्हाट्सएप ग्रुप में शामिल होने के लिए यहाँ क्लिक करें- Click Here
पल्लव: History of India
इस राज्य की राजधानी कांचीपुरम थी जो कावेरी डेल्टा चारों ओर फैली हुयी थी। पल्लवों ने सातवाहनों के पतन के बाद दक्षिण भारत में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की और छठीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी के अंत तक शासन किया था। तत्पश्चात् वे आंध्र और फिर वहां से कांची चले गये जहां उन्होंने शक्तिशाली पल्लव साम्राज्य की स्थापना की।
पल्लव की उत्पत्ति:
पल्लवों की उत्पत्ति के संबंध में कई विवाद रहे हैं। उनमें से कुछ महत्वपूर्ण निम्न प्रकार हैं-
- संभवतः वे यूनानी पारथीयों के वंशज थे जो सिकंदर के आक्रमण के बाद भारत आये थे।
• संभवत: वे एक स्थानीय आदिवासी कबीले के थे जिन्होंने तोंडैन्नाडु या लता भूमि पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था।
• वे चोल -नागों के विवाह से उत्पन्नित थे।
• वे उत्तर के रूढ़िवादी ब्राह्मण थे और उनकी राजधानी कांची थी।
पल्लव राजवंश के महत्वपूर्ण शासक: History of India
सिंहविष्णु: इस वंश का प्रथम महत्वपूर्ण शासक था। सिंहविष्णु ने चोलों के क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था और बाद में सीलोन सहित अन्य दक्षिणी क्षेत्रों पर राज किया।
महेन्द्रवर्मन प्रथम: पुलकेशिन द्वितीय ने उसे पराजित कर दिया था। सेंट अप्पर और विद्वान भारवि द्वारा उसका संरक्षण किया गया था। महेन्द्रवर्मन प्रथम ने एक व्यंग्य नाटक ‘मत्तविलास प्रहसन’ की रचना की थी।
नरसिंहवर्मन प्रथम: वह पुलकेशिन द्वितीय पर अपनी जीत के लिए प्रसिद्ध था जिसने पुलकेशिन द्वितीय के साम्राज्य पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था। उसने वातापिकोंड (वातापी को पराजित करने वाला) की उपाधि धारण की थी। बाद में नरसिंहवर्मन प्रथम ने चोल, चेर, और पांडंयों को भी पराजित किया। ह्वेनसांग ने उसके शासन काल के दौरान ही कांचीपुरम का दौरा किया था। नरसिंहवर्मन प्रथम ने महाबलीपुरम शहर (ममाल्लापुरम) और प्रसिद्ध शैलकृत विशालकाय (एकल पत्थर से बने मकबरा) मंदिरों की स्थापना की थी। दो अभियानों के लिए उसने नौसेना को सीलोन भेजा था।
महेन्द्रवर्मन द्वितीय: विक्रमादित्य प्रथम ने उसकी हत्या कर दी थी।
अन्य पल्लव राजाओं में परमेश्वरवर्मन प्रथम, नरसिंहवर्मन द्वितीय, परमेश्वरवर्मन द्वितीय और नंदीवर्मन द्वितीय शामिल थे।
History of India: भारत में आर्यों का भौतिक और सामाजिक जीवन, ancient india medieval modern
यह माना गया है कि आर्य भारत के मूल निवासी नहीं थे। कुछ इतिहासविद कहते हैं कि आर्यों का वास्तविक घर मध्य एशिया में था। दूसरे इतिहासविदों का मत था कि इनका वास्तविक घर दक्षिणी रूस (कैस्पियन समुद्र के पास) या दक्षिण-पूर्व यूरोप (ऑस्ट्रिया और हंगरी) में था। वे आर्य जो भारत में बस गए थे, इंडो-आर्यन कहलाए।
यह माना गया है कि आर्य भारत के मूल निवासी नहीं थे। कुछ इतिहासविद कहते हैं कि आर्यन का वास्तविक घर मध्य एशिया में था। दूसरे इतिहासविदों का मत था कि इनका वास्तविक घर दक्षिणी रूस (कैस्पियन समुद्र के पास) या दक्षिण-पूर्व यूरोप (ऑस्ट्रिया और हंगरी) में था। वे आर्य जो भारत में बस गए थे, इंडो-आर्यन कहलाए। बाल गंगाधर तिलक कहते थे कि आर्यन साइबेरिया में बसे थे परंतु गिरते तापमान की वजह से उन्होने हरियाली के लिए साइबेरिया छोड़ दिया था।
भौतिक जीवन: History of India
- ऋग वैदिक आर्यन अपनी सफलता का श्रेय उनके घोड़ो, रथों और पीतल के हथियारों के प्रति समझ को देते थे।
- वे राजस्थान के खेत्री प्रांत से तांबे का कारोबार करते थे।
- बुवाई, कटाई और खलिहान के लिए आर्यन लकड़ी के हलों का हिस्सेदारी में प्रयोग करते थे।
- आर्यन की सबसे महत्वपूर्ण संपत्ति गाय थी।
- आर्य जोकि देहाती थे, इनकी ज़्यादातर लड़ाइयाँ गाय के तबेलों पर नियंत्रण के लिए होती थीं। इन लड़ाइयों को ऋग्वेद में गवीस्थि या गायों की खोज कहा जाता था।
- जमीन को निजी संपत्ति के रूप में नहीं देखा जाता था।
- तांबा, लोहा और पीतल जैसे धातुओं का प्रयोग होता था।
- कुछ लोग सुनार, कुम्हार, सूत कातने वाले और बढ़ई का काम करते थे।
आदिवासी राजनीति: History of India
- आदिवासी मुखिया को राजन कहा जाता था और उसका स्थान वंशानुगत होता था।
- राजा के साथ आदिवासी सभाएं जैसे सभा, समिति, गण और विधाता भी निर्णय लेनी की ताकत रखते थे।
- पूर्व वैदिक काल में महिलाएं भी सभा और विधाता में भाग ले सकती थीं। History of India
- दो मुख्य पदाधिकारी जो राजा की मदद कर सकते थे:
- पुरोहित या मुख्य पंडित
- सेनान्त या सेना प्रमुख
- वैदिक युग में लगाए गए कर बाली व भाग थे।
- गलत काम करने वालों पर नज़र रखने के लिए जासूस नियुक्त किए गए थे।
- वे अधिकारी जो गाँव में बस गए थे और ज़मीन पर कब्जा कर लिया था उन्हे व्रजपति कहते थे।
- व्रजपति क्षेत्र सेना की नियंत्रण में थे और परिवारों (कुलपा )के मुखिया और युद्ध के लिए सेना बटालियनों (ग्रामणि कहते थे) का नेतृत्व करते थे।
- आर्यन के पास स्थायी सेना नहीं थी पर वे कुशल सेनानी थे।
- वे प्रकृति से आदिवासी थे और इसलिए इनकी निश्चित प्रशासनिक व्यवस्था नहीं थी क्यूंकि वे लगातार घूमते रहते थे।
आदिवासी और परिवार: History of India
- लोगों को उनकी जाति से पहचाना जाता था।
- आर्यन के जीवन में आदिवासी (जन या विस ) एक महत्वपूर्ण किरदार अदा करते थे।
- विस आगे ग्राम या योद्धाओं से बनी हुई छोटी आदिवासी इकाइयों में विभाजित था।
- जब दो ग्राम आपस में एक दूसरे से लड़ते थे, उससे संग्राम या युद्ध कहा जाता था।
- ऋग्वेद में परिवार के लिए कुल या गृह शब्द प्रयोग किया गया है।
- आर्य सयुंक्त परिवार में रहते थे। History of India
- रोमन की तरह वे पितृसत्ता को मानते थे जैसे परिवार का मुखिया पिता होता था।
- लोग बेटों को बेटियों से ज्यादा पसंद करते थे और बलिदान के समय इसके लिए प्रार्थना भी करते थे।
- महिलाएं राजनीतिक सभाओं में भाग ले सकती थीं और अपने पतियों के साथ बलिदान भी कर सकती थीं।
- ऋग्वेद में एक से अधिक पति रखने का भी वैवाहिक नियम था और ऐसे कई घटनाएँ हैं जिसमे मृत भाई की पत्नी से विवाह किया गया हो और विधवा का दोबारा विवाह किया गया हो।
- बाल विवाह के कोई भी साक्ष्य मौजूद नहीं हैं और विवाह के लिए 16 या 17 वर्ष उपयुक्त मानी गई है।
सामाजिक विभाजन: History of India
- आर्य वर्ण के प्रति सचेत थे और उन्होने वर्ण के आधार पर जातिय भेदभाव शुरू कर दिया।(शाब्दिक अर्थ रंग)
- आर्य मूल निवासियों से रंगरूप में गोरे थे जिसने सामाजिक प्रणाली को जन्म दिया।
- दास और दस्यु से गुलामों की तरह व्यवहार किया जाता था और शूद्र को जाति प्रणाली में सबसे निम्न दर्जा दिया गया था। History of India
- आदिवासी मुखिया युद्ध में लूटे गए माल में सबसे ज्यादा हिस्सा प्राप्त करता था और ताकतवर हो जाता था।
- ईरान की तरह आदिवासी समाज तीन दलों में विभाजित हो गया:
- योद्धा
- पुरोहित
- आम लोग
प्रधान भाग: वह काल जिसने ऋग वैदिक युग का अनुसरण किया वह उत्तरकालीन वैदिक के नाम से जाना गया।
उत्तरकालीन युग में आर्थिक जीवन: History of India
- वैदिक लेखों में समुद्र व समुद्री यात्राओं का उल्लेख है। यह ये दर्शाता है कि वर्तमान का समुद्री व्यापार आर्यन के द्वारा शुरुं किया गया था।
- धन उधार देना एक फलता फूलता व्यापार था। श्रेस्थिन शब्द यह बताता है कि इस युग में सम्पन्न व्यापारी थे और शायद वे सभा के रूप में संगठित थे।
- आर्यन ने सिक्कों का प्रयोग नहीं किया परंतु सोने की मुद्राओं के लिए विशेष सोने के वज़नों का प्रयोग किया गया। सतमाना, निष्का, कौशांभी, काशी और विदेहा प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र थे।
- जमीन पर बैल गाड़ी का प्रयोग सामान ले जाने के लिए किया जाता था। विदेशी सामान के लिए नावों और समुद्री जहाजों का प्रयोग किया जाता था।
- चाँदी का इस्तेमाल बढ़ गया था और उससे आभूषण बनाए जाते थे।
उत्तरकालीन वैदिक युग में सामाजिक जीवन: History of India
- समाज 4 वर्णों में विभाजित था : ब्राह्मण, राजन्य या क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।
- प्रत्येक वर्ण का अपना कार्य निर्धारित था जिसे वे पूरे रीति रिवाज के साथ करते थे। हर एक को जन्म से ही वर्ण दे दिया जाता था।
- गुरुओं के 16 वर्गों मे से एक ब्राह्मण होते थे परंतु बाद में दूसरे संत दलों से भी श्रेष्ठ हो जाते थे। इन्हे सभी वर्गों में सबसे शुद्ध माना जाता था और ये लोग अपने तथा दूसरों के लिए बलिदान जैसी क्रियाएँ करते थे।
- क्षत्रिय शासकों और राजाओं के वर्ग में आते थे और उनका कार्य लोगों की रक्षा करना और साथ ही साथ समाज में कानून व्यवस्था बनाए रखना होता था।
- वैश्य लोग आम लोग होते थे जो व्यापार, खेतीबाड़ी और पशु पालना इत्यादि का कार्य करते थे। मुख्यतः यही लोग कर अदा करते थे।
- यद्यपि सभी तीनों वर्णों को उच्च स्थान मिला था और ये सभी पवित्र धागे को धारण कर सकते थे, पर शूद्रों को ये सभी सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं और इनसे भेदभाव किया जाता था।
- पैतृक धन पित्रसत्तात्मक का नियम था जैसे चल अचल संपत्ति पिता से बेटे को चली जाती थी। औरतों को ज़्यादातर निचला स्थान दिया जाता था। लोगों ने गोत्र असवारन विवाह का चलन चलाया। एक ही गोत्र के या एक ही पूर्वजों के लोग आपस में विवाह नहीं कर सकते थे।
वैदिक लेखों के अनुसार जीवन के चार चरण या आश्रम थे: ब्रह्मचारी या विद्यार्थी, गृहस्थ, वनप्रस्थ या आधी निवृत्ति और सन्यास या पूर्ण निवृत्ति।
प्रशासन की व्यवस्था: History of India
- पूर्व वैदिक आर्यन जाति में संगठित रहते थे ना की राज्यों के रूप में। जाति के मुखिया को राजन कहते थे। राजन की अपनी स्वायत्तता उसकी जाति की सभा में प्रतिबंधित थी जिसे सभा या समिति कहा जाता था।
- राजन उनकी सहमति के बिना सिंहासन पर नहीं बैठ सकता था। सभा, जाति के कुछ प्रमुख लोगों की होती थी जबकि समिति में जाति का हर एक आदमी होता था।
- कुछ जातियों के वंशानुगत मुखिया नहीं होते थे और इन्हे जातिय सभा की सरकार द्वारा चलाया जाता था। राजन की प्राथमिक अदालत होती थी जिसमे उसकी जाति के सांसद और जाति के मुख्य लोग (ग्रामणि) शामिल होते थे।
- राजन का मुख्य कार्य अपनी जाति की रक्षा करना था। उसकी सहायता उसके कई अधिकारियों द्वारा की जाति थी जिसमे पुरोहित, सेनानी(सेना का प्रमुख), दूत और जासूस शामिल थे। पुरोहित समारोह करते थे तथा युद्ध में जीत के लिए और शांति बनाए रखने के लिए मंत्रौच्चारण करते थे।
- राजन को समाज और जाति के संरक्षक के रूप में देखा जाता था। वंशानुगत शासन उभरना शुरू हुआ और जिसके फलस्वरूप प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई जैसे रथ दौड़, पशु की छाप और पासों का खेल जो की पहले निश्चय करते थे कि कौन राजा बनने योग्य है, बिलकुल भी महत्वपूर्ण नहीं थे। इस युग के रीति-रिवाज राजा के दर्जे को लोगों से ऊपर रखते थे। उसे प्रायः सम्राट कहा जाता था।
- राजन की बड़ी हुई राजनीतिक ताकतों ने उसे उत्पादिक संसाधनों पर नियंत्रण करने की ताकत दे दी थी। ऐच्छिक रूप से दिया गया उपहार अनिवार्य भेंट बना दिया गया हालांकि कर के लिए कोई व्यवस्थित प्रणाली नहीं थी।
- उत्तरकालीन वैदिक युग के अंत में, विभिन्न प्रकार की राजनीतिक ताकतों जैसे राज्य, गण राज्य और जातिय रियासतों का भारत में उत्थान हुआ।
उत्तरकालीन वैदिक ईश्वर: History of India
- सबसे महत्वपूर्ण वैदिक ईश्वर, इंद्र और अग्नि ने अपनी महत्वता खो दी और इनके स्थान पर प्रजापति, विधाता की पूजा होने लगी।
- कुछ सूक्ष्म भगवान जैसे रुद्र, पशुओं के देवता और विष्णु, मनुष्य का पालक और रक्षक प्रसिद्ध हो गए।
रीति-रिवाज और दर्शन शास्त्र: History of India
- बलिदान, प्रार्थनाओं से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए और वे दोनों प्रजा और स्वदेशी को अपनाते थे। जबकि लोग परिवार के बीच में ही बलिदान करते थे, जन बलिदान में राजा और उसकी प्रजा शामिल होते थे।
- यज्ञ या हवन करना उनके मुख्य धार्मिक कार्य होते थे। रोज़ाना के यज्ञ साधारण होते थे और परिवारों के बीच में ही होते थे।
- रोज़ के यज्ञों के अलावा वे त्योहार के दिनों में ख़ास यज्ञ करते थे। कभी कभार इन मौकों पर जानवरों का भी बलिदान दिया जाता था।
हमारे Telegram Channel में शामिल होने के लिए यहाँ क्लिक करें- Click Here